हेलो दोस्तों एक बार फिर से मेरे ब्लाग में आप का स्वागत है आज हम आपको अलंकार के बारें महत्वपूर्ण जानकारी प्रेषित कर रहें है जिसमें अलंकार की उत्पत्ति, अलंकार की परिभाषा, अलंकार के विभिन्न प्रकारों या भेदों के बारें में पूरी जानकारी सम्मिलित होगी।
अलंकार का परिचय –
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‘अलंकार’ की व्युत्पत्ति ‘अलम्+कृ+घञ्’ से हुई है, जिसका अर्थ है ‘आभूषण’।भूषित करने वाले उपादान को अलंकार कहा जाता है । आचार्य भामह (6वीं शती) को अलंकार सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। भामह ने वक्रोक्ति को सम्पूर्ण अलंकारों में व्याप्त बतलाते हुए उसे अलंकारों का एक मात्र आश्रय माना है-
“सैषा सर्वत्र वक्रोक्ति रनायाऽर्थो विभाव्यते
यत्नोऽस्यां कविता कार्यः कोऽलंकारोऽनया बिना”
आचार्य जयदेव ने कहा, अलंकार के बिना कविता उसी प्रकार है जैसे उष्णता के बिना अग्नि है-
“असौ न मन्यते कस्मदनुष्णमनलंकृती”
अलंकार की परिभाषा-
अलंकार को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “अलंकरोति इति अलंकार” अर्थात जो अलंकृत(सुशोभित) करे उसे अलंकार कहते है । आचार्य दांडी के अनुसार-“काव्य शोभा करान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते” अर्थात् काव्य के शोभा कारक धर्म अलंकार कहलाते है । जिस प्रकार किसी स्त्री की शोभा आभूषणों से बढ़ जाती है, उसी प्रकार अलंकारों से काव्य की सुन्दरता बढ़ जाती है । स्पष्ट है की अलंकारों से काव्य में शोभा उत्पन्न नहीं होती, केवल बढ़ती है । इस हम कह सकते है कि काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते है।
इसी के संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि – “भावो का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति अलंकार है”
अलंकार के भेद या प्रकार –
अलंकार के मुख्यतः तीन प्रकार के होते है –
1.शब्दालंकार 2.अर्थालंकार 3.उभयालंकार
1.शब्दालंकार – शब्दालंकार अलंकार शब्द पर आधारित होते है । यदि शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची रख दे तो अलंकार समाप्त हो जाता है प्रमुख शब्दालंकारो में –अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्ति, वक्रोक्ति आदि ।
2.अर्थालंकार- अर्थालंकार जैसा नाम से विदित होता है की ये अर्थ पर आधारित होते है अतः शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची रख देने पर भी अलंकार बना रहता है । प्रमुख अर्थालंकारो में- उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, विभावना, विशेषोक्ति, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, विरोधाभास, भ्रांतिमान, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, अपह्नुति, असंगति, संदेह, मानवीकरण।
3.उभयालंकार- जहाँ शब्द और अर्थ दोनों ही कोटि के चमत्कार रहते है वहाँ उभयालंकार होता है।
1.उपमा अलंकार – जहाँ गुण धर्म और क्रिया के आधार पर उपमेय की तुलना उपमान से की जाती है वहाँ उपमा अलंकार होता है जैसे-
हरिपद कोमल-कमल से ।
इसमें हरिपद (उपमेय) की तुलना कमल (उपमान) से कोमलता के कारण की गयी है। अतः उपमा अलंकार है ।
2.रूपक अलंकार- जहाँ उपमेय पर उपमान का अभेद आरोप किया जाता है वहाँ रूपक अलंकार होता है जैसे-
अम्बर पनघट में डुबो रही ताराघट उषा नागरी ।
यहाँ आकाश रूपी पनघट में उषा रूपी स्त्री तारा रूपी घड़े डुबो रही है यहाँ आकाश पर पनघट का उषा पर स्त्री का और तारा पर घंडे का आरोप होने से रूपक अलंकार है ।
रूपक के प्रमुख तीन भेद होते है –
1.निरंग रूपक- जहाँ एक उपमेय से एक ही उपमान आरोप हो उसे निरंग रूपक कहते है इसे निरवयव भी कहते है जैसे-
हरि मुख पंकज, भ्रुव-धनुष, खंजन लोचन मित्त।
बिम्ब-अधर, कुण्डल-मकर, बसे रहत मो चित्त।।
2.सांग रूपक- जहाँ उपमेय में उपमान के अंगो का आरोप हो, वहाँ सांग रूपक होता है। इसे सावयव रूपक भी कहते है। जैसे-
नारि कुमुदनी अवध सर, रघुवर विरह दिनेस।
अस्त भये विकसित भई, निरखि राम राकेस।।
3.परम्परिक रूपक- परम्परिक रूपक में एक रूपक के द्वारा दुसरे रूपक की पुष्टि होती है जैसे-
राम कथा कलि पन्नग भरनी ।
पुनि विवेक पावक कहँ अरनी ।।
3.उत्प्रेक्षा अलंकार- जहाँ उपमेय में उपमान की कल्पना या सम्भावना होने पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है जैसे-
मुख मानों चन्द्रमा है ।
यहाँ मुख (उपमेय) को चन्द्रमा (उपमान) को मान लिया गया है अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है। इस अलंकार की मनु, मानो, जनु, जानो शब्दों से होती है ।
4.यमक अलंकार- जहाँ कोई शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त हो और उसके अर्थ अलग-अलग हो वहाँ यमक अलंकार होता है जैसे-
सजना है मुझे सजना के लिए ।
यहाँ पहले सजना का अर्थ है- श्रृंगार करना और दूसरे सजना का अर्थ है- नायक या पति शब्द दो बार प्रयुक्त है और अर्थ अलग-अलग है अतः यहाँ यमक अलंकार है । एक अन्य उदाहरण है –
कनक-कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय।
या खाए बौराय जग वा पाए बौराय ।।
यहाँ पहले कनक का अर्थ है- धतुरा और दुसरे का अर्थ है- सोना।
5.श्लेष अलंकार- जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त हो, किन्तु प्रसंग भेद में उसके अर्थ एक से अधिक हो वहाँ श्लेष अलंकार होता है जैसे –
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै मोती मानस चून।।
यहाँ पानी के तीन अर्थ है- पहले पानी का अर्थ कान्ति दुसरे का अर्थ आत्म-सम्मान तीसरे का जल अतः श्लेष अलंकार है।
श्लेष अलंकार के दो भेद होते है –
1.अभंग श्लेष- जब श्लेष में शब्द के दो टुकड़े किये बिना ही जहाँ एक से अधिक अर्थ निकल जाये, वहाँ पर अभंग श्लेष होता है जैसे –
चरण धरत शंका करत, चितवत चारिहु ओर।
सुबरन को खोजत फिरत कवि व्यभिचारी चोर।।
2.सभंग श्लेष- जहाँ शब्द को भंग करने पर दूसरा अर्थ निकले वहाँ सभंग श्लेष होता है जैसे-
नाहीं नाहीं कहै थोरौ माँगे सब दें कहै,
मंगन को देखि पट देत बार बार हैं ।
6.विभावना अलंकार- जहाँ कारण के अभाव में कार्य हो रहा हो वहाँ विभावना अलंकार होता है । जैसे-
बिन पग चलै सुनै बिनु काना।
वह (ईश्वर) बिना पैरों के चलता है और बिना कानों के सुनता है कारण के अभाव में कार्य होने से यहाँ विभावना अलंकार है ।
7.अनुप्रास अलंकार – जहाँ किसी वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है जैसे-
चारूचन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही जल थल में।
यहाँ च वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार है अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
अनुप्रास के पांच भेद होते है-
1.छेकानुप्रास- जहाँ अनेक व्यंजनों की, स्वरूप और क्रम से एक बार आवृति हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है जैसे –
रीझि रीझि रहसि रहस हँसि हँसि उठै,
साँसै भरि आँसू भरि कहत दई दई।
2.वृत्यानुप्रास- जहाँ वृत्ति के अनुसार एक या अनेक वर्णों की आने बार आवृत्ति होती है वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार होता है। रसानुकूल भिन्न-भिन्न वर्ण रचना को वृत्ति कहते है जैसे-
तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ।
3.श्रुत्वानुप्रास- जहाँ किसी एक ही स्थान जैसे- कंठ, तालु आदि से उच्चारित होने वाले वर्णों कि आवृत्ति हो, वहाँ श्रुत्वानुप्रास होता है जैसे-
तुलसीदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ।
4.अन्त्यानुप्रास- जहाँ पदान्त में एक ही स्वर और एक ही व्यंजन की आवृत्ति हो, वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है जैसे-
रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्राण जायें पर वचन न जाई ।।
5.लाटानुप्रास- जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवृत्ति उसी अर्थ में, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो तो वहाँ लाटानुप्रास होता है जैसे-
पीय निकट जाके, नहीं घाम, चाँदनी ताहि ।
पीय निकट जाके नहीं, घाम चाँदनी ताहि ।।
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8.संदेह अलंकार- रूप-रंग आदि का सादृश्य होने के कारण उपमेय में उपमान का संशय होने में संदेह अलंकार होता है जैसे-
सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
कि सारी ही की नारि है कि नारि ही की सारी है।।
9.व्यतिरेक अलंकार- जहाँ कारण बताते हुए उपमेय की श्रेष्ठता उपमान से बताई गयी हो, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है जैसे-
का सरवरि तेहिं देउं मयंकू।
चाँद कलंकी वह निकलंकू।।
मुख की समानता चंद्रमा से कैसे दूं ? चंद्रमा में तो कलंक है, मुख निष्कलंक है।
10.भ्रान्तिमान अलंकार- जहाँ रूप रंग आदि की समानता के कारण जहाँ एक वस्तु में अन्य किसी वस्तु की चमत्कारपूर्ण भ्रान्ति कल्पित हो जाय,वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार माना जाता है जैसे-
नाक की मोती अधर की कांति से बीज दांडिम का समझक भ्रान्ति से ।
देख उसको ही हुआ शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है ।।
यहाँ नाक में तोते का और दन्त पंक्ति में अनार के दाने का का भ्रम हुआ है, अतः यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है ।
- अपह्नुति अलंकार- जहाँ उपमेय का निषेध करके उपमान की स्थापना की जाए वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है जैसे-
मैं जो कहाँ रघुवीर कृपाला ।
बन्धु न होई मोर यह काला।।
यहाँ बताया गया है की यह मेरा भाई नहीं काल है यहाँ उपमेय(भाई) का निषेध करते हुए उपमान(काल) की स्थापना गयी है अतः अपह्नुति अलंकार है।
12.प्रतीप अलंकार- प्रतीप का अर्थ है उल्टा या विपरीत यह उपमा अलंकार के विपरीत होता है क्योकि इस अलंकार में उपमान को लज्जित पराजित या हीन दिखाकर उपमेय की श्रेष्ठा बताई जाती है जैसे-
सिय मुख समता किमि करै चन्द वापुरो रंक ।
इसमें बताया गया है की सीता जी के मुख(उपमेय) की तुलना बेचारा चंद्रमा(उपमान) नहीं कर सकता। उपमेय की श्रेष्ठा प्रतिपादित होने से यहाँ प्रतीप अलंकार है ।
13.असंगति अलंकार- कारण और कार्य में संगति न होने पर असंगति अलंकार होता है । जैसे-
हृदय घाव मेरे पीर रघुवीरै।
यहाँ बताया गया है की घाव तो लक्ष्मण के हृदय में है पर पीड़ा राम को है, अतः असंगति अलंकार है।
14.दृष्टान्त अलंकार- जहाँ उपमेय, उपमान और साधारण धर्म का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता है, वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है जैसे-
बसै बुराई जासु तन, ताही को सन्मान।
भलो भलो कहि छोड़िए, खोटे ग्रह जप दान।।
यहाँ पूर्वार्द्ध में उपमेय वाक्य और उत्तरार्द्ध में उपमान वाक्य है। इनमे सन्मान होना जपदान करना ये दो भिन्न-भिन्न धर्म कहे गए है। इन दोनो में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है अतः दृष्टान्त अलंकार है ।
15.अर्थान्तरन्यास अलंकार – जहाँ सामान्य कथन का विशेष से या विशेष कथन का सामान्य से समर्थन किया जाय वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। जैसे-
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग।।
16.विरोधाभास अलंकार- जहाँ वास्तविक विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास मालूम पड़े, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है। जैसे-
या अनुरागी चित्त की गति समझे नहिं कोई।
ज्यों ज्यों बूडैं स्याम रंग त्यों त्यों उज्ज्वल होइ।।
यहाँ स्याम रंग में डूबने पर भी उज्ज्वल होने में विरोध आभासित होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। अतः विरोधाभास अलंकार है।
17.वक्रोक्ति अलंकार- जहाँ किसी वाक्य में वक्ता के आशय से भिन्न अर्थ की कल्पना की जाती है, वक्रोक्ति अलंकार होता है।
इसकी दो भेद होते है-
1.काकु वक्रोक्ति- जहाँ वक्ता के कथन का कंठ ध्वनि के कारण श्रोता भिन्न अर्थ लगता हो।
जैसे-
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
2.श्लेष वक्रोक्ति- जहाँ श्लेष के द्वारा वक्ता के कथन का भिन्न अर्थ लिया जाता है। जैसे-
को तुम हौ इत आये कहां धनस्याम हौ तौ कितहूं वरसो।
चितचोर कहावत हैं हम तो तहां जाहुं जहां धन है सरसों।।
18.अन्योक्ति अलंकार- अन्योक्ति का अर्थ होता है अन्य के प्रति कही गयी उक्ति इस अलंकार में अप्रस्तुत प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन किया जाता है जैसे-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सौं बिध्यौं आगे कौन हवाल।।
यहाँ भ्रमर और कली का प्रसंग अप्रस्तुत विधान के रूप में है जिसके माध्यम से राजा जयसिंह को सचेत किया गया है, अतः अन्योक्ति अलंकार है।
19.मानवीकरण अलंकार- जहाँ जड़ वस्तुओं या प्रकृति पर मानवीय चेष्टाओं का आरोप किया जाता है वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है। जैसे-
फूल हँसे कलिया मुसकाईं।
यहाँ फूलों का हँसना, कलियो का मुस्कराना ये मानवीय चेष्टाएँ है अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है ।
20.अतिशयोक्ति अलंकार- अतिशयोक्ति का अर्थ होता है किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना। जब काव्य में कोई बात बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कहि जाती है तो वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता हैं । जैसे-
लहरे व्योम चूमती उठतीं।
यहाँ लहरों को आकाश चूमता हुआ दिखाकर अतिशयोक्ति का विधान किया गया है।
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Bohot hi sahi tarike से समझाया गया है
धन्यवाद
बहुत सही जानकारी दी है अपने